संसार के लोगों के लिए शारीरिक शिक्षा की धारणा नई नही है। वास्तव में शारीरिक शिक्षा प्राचीन काल में भी मौजूद थी । शारीरिक शिक्षा शब्द का प्रयोग शारीरिक क्रियाओं के लिये किया जाता रहा है क्योकि शारीरिक शिक्षा परमात्मा की सर्वोतम रचना मनुष्यों के लिये अत्यावश्यक है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। स्वस्थ शरीर कैसे रहे इस हेतु शारीरिक शिक्षा के ज्ञान की जानकारी प्रत्येक इंसान के लिये जरुरी है । जन्मोपरान्त शिशु इस धरती पर सबसे असहाय परन्तु साथ ही सबसे अधिक संस्कार और शिक्षा ग्रहण करने वाला प्राणी होता है। पैदा होते ही उसको किसी भी अवस्था में व्यवहार करना नह आता, परन्तु मनुष्य जीवन में प्रत्येक इंसान के लिये शरीर की शिक्षा के रुप में शारीरिक शिक्षा का ज्ञान प्रथम पाठशाला यानि परिवार से होता है तत्पश्चात विद्यार्थी जीवन में विद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर वह अपने आपको स्वस्थ एवं बलिष्ठ रखता है।

शारीरिक शिक्षा का अर्थ
शारीरिक शिक्षा का अर्थ शरीर के सर्वागीण विकास की शिक्षा से है जो शारीरिक विकास से प्रारम्भ होकर सम्पूर्ण शरीर को उत्तम रखने हेतु प्रदान की जाती है। जिसकी बदौलत उत्तम स्वास्थ्य रखने की शारीरिक रुप से बलिष्ठ बनाने की व मानसिक रुप से शारीरिक शिक्षा सक्षमता प्राप्त कराने की शिक्षा हैं। शारीरिक शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक मानसिक और भावात्मक रुप से तन्दुरुस्ती प्रदान करने वाली शिक्षा है।
● शारीरिक शिक्षा की परिभाषाएँ
सुभाष चन्द्र के अनुसार “शारीरिक शिक्षा वह शिक्षा है जिससे व्यक्ति मन वचन कर्म से अपनी आयु के अनुसार बिना थके अपने कार्य को लम्बे समय तक सुचारु रुप से कर सके । अर्जुन सिह सोलकी के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा बच्चो के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रकाशित करने की रोशनी हैं” ।
हेमलता रावल के अनुसार “शरीर से संबधित विभिन्न गतिविधियों व उसे करने की सही तकनीकों के विषय में ज्ञान व जागरुकता उत्पन्न करना शारीरिक शिक्षा है”।
मोहन राजपुरोहित के अनुसार “मानव शारीर के सर्वागिण विकास एवं उत्तम स्वास्थ्य प्राप्ति का आधार शारीरिक शिक्षा है” ।
भारतीय शारीरिक शिक्षा एवं मनोरंजन के केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा शिक्षा ही है। यह वह शिक्षा है जो बच्चों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व तथा उसकी शारीरिक प्रक्रियाओं द्वारा उसके शरीर मन एवं आत्मा की पूर्णरुपण विकास हेतु दी जाती है”।
उपर्युक्त परभिाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शारीरिक शिक्षा सामान्य शिक्षा का एक अभिन्न अंग है। उत्तम स्वास्थ्य के लिये मनुष्य के लिये अत्यावश्यक है। शारीरिक शिक्षा केवल शरीर की शिक्षा ही नही अपितु सम्पूर्ण शरीर का ज्ञान है। वास्तव में शारीरिक शिक्षा बालक की वृद्धि एवं विकास में सहायक है। जिसके पालन से उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती हैं तथा स्वस्थ्य एवं खुशहाल जीवन व्यतीत हो सकता है।
निष्कर्ष रुप में अन्त में हम यह कह सकते हैं कि शारीरिक शिक्षा मात्र शारीरिक विकास में ही उपयोगी न होकर मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक विकास में सहायक है एवं उत्तम स्वास्थ्य प्राप्ति का आधार है।
शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता
पृथ्वी के लोगों के लिए शारीरिक शिक्षा की धारणा नई नहीं है वास्वत में शारीरिक शिक्षा की जड़े बहुत पुराने समय में भी मौजूद भी यदपि पुराने समय में इसका प्रयोग विभिन्न रूपों में किया जाता या आरम्भ में शारीरिक शिक्षा का प्रयोग शारीरिक क्रियाओं के लिए किया जाता था क्योंकि शारीरिक शिक्षा लोगों के जीवित रहने के लिए आवश्यक थी। शारीरिक शिक्षा बालक के जन्म से लेकर अंत तक चलने वाली सतत प्रक्रिया है। जब बच्चा जन्म लेता है तब वह जो हरकत करता है उससे लेकर अन्तिम सांस तक अविरल चलने वाली क्रिया शारीरिक शिक्षा ही है। एक बालक के सर्वांगीण विकास हेतु शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता है व स्वस्थ रहने के लिए शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता है क्योंकि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन निवास करता है। शारीरिक शिक्षा का कार्य क्षेत्र व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करना है ।
जे.एफ. विलियम्स के अनुसार- शारीरिक शिक्षा व्यक्ति को उन परिस्थितियों में कुशल नेतृत्व प्रदान करता है जिसके द्वारा एक व्यक्ति शारीरिक रूप से स्वस्थ मानसिक रूप से सजग तथा सामाजिक जीवन में परिस्थितियों के अनुरूप कार्य कर सके। एच सी बक के अनुसार शारीरिक शिक्षा “शिक्षा के सामान्य कार्यक्रम का एक भाग है जिसका सम्बन्ध शारीरिक क्रियाकलापों द्वारा बच्चे की वृद्धि एवं विकास से है।
जे. बी. नैश के मतानुसार शारीरिक शिक्षा शिक्षा के बड़े क्षेत्र का वह अंग है जो मासपेशियों से होने वाली बड़ी कियाओं तथा उनसे सम्बन्धित प्रतिक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है।
श्री शर्मा के अनुसार शारीरिक शिक्षा उत्तम नागरिता या उत्तम स्वास्थ्य की उन्नति का एक महत्वपूर्ण साधन है।” एक तन्दुरस्त व्यक्ति की क्रियाशीलता उसके उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता को हम इस प्रकार भी प्रकट कर सकते हैं कि एक शीतल व्यक्ति को गामक बनाने एवं क्रियाशील बनाने में शारीरिक शिक्षा सहायक सिद्ध होती है।
शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता (Need of Physical education)- मानव शरीर जब तन्दुरस्त रहेगा तो वह समाज परिवार व राष्ट्र के लिये एक वरदान साबित हो सकता है जिसमें शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता मानव के लिए महत्वपूर्ण है। शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट होती है-
1. सुदृढ शारीरिक दक्षता को बनाये रखना
आज शारीरिक दक्षता 21वीं सदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्वों में से एक है । शारीरिक शिक्षा दिनचर्या में नियमित दक्षता क्रियाओं को सम्मिलित करने के महत्त्व को स्थापित करने में सहयोग प्रदान करती है । यह शारीरिक दक्षता को बनाये रखने, मासपेशियों को मजबूत करने तथा सहनशीलता की अभिवृति को बढ़ाती है । शारीरिक शिक्षा शारीरिक योग्यताओं को उच्च स्तर तक विकसित करती है।
जिससे बालक खुश य ऊर्जावान बना रहता है । 2. आत्म विश्वास को बढ़ाने में सहायक
शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता इसलिए भी है कि वह बालक में आत्म विश्वास को बढ़ावा देती है। जब बच्चा खेलता है तो वह खेल हार-जीत को स्वीकार करना सीखाता है। टीम को साथ लेकर चलने की योग्यता विकसित करता है। खेल और खेल मैदान पर हार को स्वीकार करना अपने स्वयं की क्षमताओं पर विश्वास करना, सकारात्मक सोच का निर्माण शारीरिक शिक्षा द्वारा ही पैदा होता है।
3. स्वास्थ्य और पोषक तत्वों की जानकारी
स्वास्थ्य संबंधी सम्पूर्ण जानकारी शारीरिक शिक्षा द्वारा प्राप्त होती है। वर्तमान में बालकों में मोटापा एनिमिया, खान-पान संबंधी विरूपता की समस्या बालकों में व्याप्त है जिसका निदान शारीरिक शिक्षा द्वारा सम्भव है सन्तुलित भोजन करना जंकफूड फास्ट फूड के दुष्परिणामों का ज्ञान होता है। शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य भोजन सबधी सही आदतों के विकास एवं पोषण के निर्देशों को प्रोत्साहित करना है ।
4. खेल और खेल भावना का विकास करने में सहायक
शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता इसलिए भी है कि यह व्यक्ति में खेलों के द्वारा खेल भावना मित्रता भाईचारा तथा सद्भावना का विकास करती है। बच्चे खेलो के माध्यम से आपस में मिलजुलका रहना, दल निर्माण का गठन करना व संगठित रहने की प्रवृति को सीखते हैं जो शारीरिक शिक्षा द्वारा ही सम्भव है ।
5. स्वच्छता के महत्व को प्रकट करना
शारीरिक शिक्षा कक्षाओं में बालक को व्यक्तिगत स्वच्छता और साफ-सफाई के महत्त्व के संब में प्रेरित करती है । बालक को स्वच्छ वातावरण में खेलने के लिये तथा स्वास्थ्य के प्रति सचेत करहै ।
6. नवोदित खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने में सहायक
शारीरिक शिक्षा के माध्यम से नये व उभरते हुये पुरूष व महिला खिलाड़ी जो विश्व खेलें। अपना स्थान बनाना चाहते हैं के लिए एक उत्कृष्ट अवसर प्रदान करती है। ऐसे खिलाडियों की जानने तथा विभिन्न खेलों में उनको अवसर प्रदान कर आगे बढ़ने के लिए शारीरिक शिक्षा अति आवश्यक हैं
शारीरिक शिक्षा का इतिहास
शारीरिक शिक्षा का इतिहास प्राचीन काल से ही विद्यमान है भारत वर्ष में शारीरिक शिक्षा का प्राचीन काल से महत्वपूर्ण स्थान है। विश्व की सबसे पुरानी व्यायाम प्रणाली भारत की है। जिसम यूनान, स्पार्टा और रोम मे शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में झिलमिलाते हुये तारे का अभ्युदय हो रहा था उससे पूर्व भारत में वैज्ञानिक आधार पर शारीरिक शिक्षा का प्रचलन था। आश्रमो तथा गुरुकुलों में अखा एवं व्यायामशालाओं में विद्यार्थी गृहस्थी व सन्यासी व्यायाम का अभ्यास करते थे। इन व्यायामों में दण्ड बैठक, मुगदर गदा नाल धनुर्विद्या मुष्टी, वज्रमुष्टी आसन, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार नवली, नेती, धोती वस्ती सहित अनेक क्रियाए होती थी।
भारत में शारीरिक शिक्षा का इतिहास
पुण्य भूमि भारत वर्ष में शारीरिक शिक्षा का इतिहास अति प्राचीन है क्योंकि सभी विधाओं में भारत विश्व गुरु रहा है। निरोगी काया को पहला सुख माना गया। भारत के अनेक बियों ने आदिकाल मे कहा शरीरमाघ खलु धर्म साधनम अर्थात् यह शरीर ही धर्म का श्रेष्ठ साधन है और उत्तम शरीर शारीरिक शिक्षा से ही प्राप्त होता है।
भारत वर्ष में शारीरिक शिक्षा की जानकारी वेद संहिताओं उपनिषदों रामायण महाभारत आदि ग्रन्थों में भी प्राप्त होती है कुछ श्लोको में देवताओं के शरीर रूपी आकार का वर्णन आता है। जिससे यह बात पुष्ट होती है कि लोगो को अपने शरीर के बारे में ज्ञान था शारीरिक रूप से हष्ट-पुष्ट होने के ज्ञान की सम्पूर्ण जानकारी सतयुग काल, त्रेता युग, द्वापर युग में मिलती है महर्षि पंतजलि के योग, प्राणायाम, आसन से विस्तृत शारीरिक शिक्षा की जानकारी मिलती है। जिससे व्यक्ति शारीरिक बलिष्ठता ही नहीं बल्कि आत्मिक उन्नति प्राप्त कर अपनी आत्मा को परमात्मा से जोडने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता था। दिव्य दृष्टि की शिक्षा प्राप्त कर लेता था महर्षि वाल्मिकि ने शारीरिक शिक्षा के माध्यम से दिव्य दृष्टि को प्राप्त कर लिया था। महाभारत युद्ध का आंखो देखा हाल नेत्रहीन राजा धतराष्ट्र को संजय ने दिव्य दृष्टि के माध्यम सुना दिया था यह शारीरिक शिक्षा का कमाल प्राचीन काल से था। अतः इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि शारीरिक शिक्षा का संबंध सृष्टि पर मानव सृजन से हुआ है। जन्म के बाद शिशु को पहली गुरु माता ने शरीर से संबंधित ज्ञान दिया और मानव वंश विस्तार बढ़ा। यदि शारीरिक शिक्षा न होती तो धरती पर मानव वंश नही बढ़ता हमें देवताओं और राक्षसों के युद्ध का भी वर्णन मिलता है। उस काल में प्राणायाम और योग बल का उल्लेख मिलता है जिसकी बदौलत लम्बी आयु प्राप्त की जाती थी। शारीरिक शिक्षा के इतिहास के अध्ययन को निम्न भागो में बांट सकते है-
1. वैदिक काल
2 महाकाव्य काल
3. हिन्दूकाल
4. नालंदा काल
5.राजपूत काल
6. ब्रिटिश काल
7 आधुनिक काल
वैदिक काल
वैदिक काल के ग्रन्थों, वेदों उपनिषदों में शारीरिक शिक्षा के ज्ञान की बदौलत शरीर बल से व शारीरिक क्रियाओं से परमात्मा प्राप्ति तक के ज्ञान का उल्लेख है। सूक्ष्म से विराट स्वरुप प्राप्ति तक का देवी देवताओ का उल्लेख है षियों ने आत्मा को परमात्मा से जोडने का सामर्थ्य प्राप्त किया है। सामान्य इंसान भी इस शिक्षा के बूते बलिष्ठ बनने का भी उल्लेख है।
इस काल में यह शिक्षा आसन व मलयुद्ध के माध्यम से प्राप्त की जाती थी। मलयुद्ध की शिक्षा द्वारा योद्धाओं और शूरवीरों का विकास किया जाता था।
अखाड़ों की प्रथा भारत वर्ष में पुरातन है। यहां शरीर को बलशाली बनाने के बारे में व्यायाम किये जाते थे। वैदिक काल में भी शस्त्रों का प्रशिक्षण धनुष विद्या मल्लयुद्ध जैसी क्रियाओं का वर्णन अता है। लोग बाल बचारी रहते थे। इससे ज्ञात होता है कि शारीरिक शिक्षा का लोगों को वैदिक काल में ज्ञान था तथा पुष्टि देवताओं और राक्षसों के कई युद्धों से होती है। पुराणों में भी शारीरिक शिक्ष का वर्णन आता है। यानि लोग शारीरिक शिक्षा की क्रियाओं पर विशेष ध्यान देते थे।
महाकाव्य काल
इस काल में रामायण और महाभारत काल आते हैं। इस काल में शारीरिक शिक्षा का काफी वर्णन मिलता है रामायण में सीताजी के स्वयंवर, धनुष तोड़ने का वर्णन इस प्रकार की शारीरिक प्रतियोगिताओं का प्रतीक है। सिवाय श्री रामचन्द्र जी के अलावा कोई राजा धनुष तोड़ न पाए इससे उस काल में शारीरिक शक्ति एवं सामर्थ्य का पता चलता है, स्वयं रामचन्द्रजी ने धनुष विद्या का उपयोग किया हनुमानजी का शारीरिक बल भी शारीरिक शिक्षा की जागरुकता को दर्शाता है।
महाभारत काल में भीम तथा दुर्योधन का गदा युद्ध अर्जुन व कर्ण का धनुष युद्ध तथा शूरवीरो का शारीरिक बल दर्शाता है कि इस काल में शारीरिक शिक्षा का प्रचलन जबरदस्त था महाभारत के रथों को चलाने वाले बहुत बलशाली लोग होते थे। इससे स्पष्ट होता है कि महाकाव्य काल में शारीरिक शिक्षा का प्रचलन आमजन तक था। जिसकी बदौलत सैनिक बलशाली होते थे।
हिन्दू काल
हिन्दूकाल में भी शारीरिक शिक्षा ने अन्य शिक्षाओं की भांति अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया, शरीर को बलिष्ठ एवं हष्ट-पुष्ट बनाये रखने के लिये अखाड़ों का प्रचलन बढा। इस काल में दण्ड बैठक, कुश्तियों आदि बहुत प्रसिद्ध हुई । इस काल मे महात्मा बुद्ध ने बताया कि शरीर को दुख देने से नहीं अपितु अच्छे कार्य करने से निर्वाण की प्राप्ति होती है। शरीर को परमार्थ एव सेवार्थ भाव के लिये उपयोगी बनाता शरीर को योगबल से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया यह शारीरिक शिक्षा का ही कमाल था कि उस काल में शरीर ही नही मन से लोग मजबूत थे।